Kartar singh sarabha biography in hindi
करतार सिंह सराभा की कहानी: 19 साल की उम्र में देश के लिए शहीद हुए, भगत सिंह मानते थे अपना गुरु
एक दिन, एक हफ़्ते, एक महीने या एक साल में हमें आज़ादी नहीं मिली. असंख्य लोगों ने कई साल संघर्ष किया, हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दी और तब कहीं जाकर हमें आज़ाद देश का दर्जा मिला, आज़ाद हवा में सांस लेने का अधिकार मिला. हमारे उज्जवल 'कल' के लिए उन्होंने अपना 'आज' कुर्बान कर दिया. बड़े ही दुख की बात है कि आज हम उन असंख्य बलिदानों का मोल नहीं समझते. ये आज़ादी जो हमें 'दिलवाई गई है', इसका उचित सम्मान नहीं करते. क्या हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले उन शूरवीरों को क्या सिर्फ़ साल के दो दिन ही याद किया जाना चाहिए?
सर्वोच्च बलिदान देने वाले कई स्वतंत्रता सेनानियों को तो आज हर कोई नाम से जानता है लेकिन इतिहास में बहुत से स्वतंत्रता सेनानी, उनकी कुर्बानी गुम हो गई. या उनमें से कुछ जीके के फ़ैक्ट बन कर रह गए. देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाला ऐसा ही एक दीवाना था, नाम था करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha).
कौन थे करतार सिंह सराभा?
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करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 को अविभाजित पंजाब के लुधियाना के पास स्थित सराभा गांव में हुआ था. पंजाब में उन दिनों नकारात्मक बदलाव की आंधी चल रही थी. अंग्रेज़ों ने 1849 में महाराजा रंजीत सिंह का राज्य छीन लिया था और उनके सबसे छोटे बेटे दिलीप सिंह को पेंशन के रूप में मामूली रकम देना शुरू कर दिया था. अंग्रेज़ी हुकूमत के कब्ज़े के बाद सैंकड़ों की संख्या में सिख ब्रितानिया सेना में शामिल होने लगे. एक लेख की मानें तो 1900 के आते-आते अंग्रेज़ों की आधी सेना सिखों की ही थी. ऐसे दौर में बड़े हो रहे थे करतार सिंह सराभा.
गांव में ही बीता शुरुआती जीवन
सराभा के बचपन के शुरुआती साल गांव में ही बीते. सराभा सिर्फ़ 8 साल के थे जब उनके पिता की मौत हो गई. पिता के जाने के बाद उनके दादाजी ने उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया. एक लेख की मानें तो बचपन में वे बड़े शरारती थे और उनके सहपाठी उन्हें 'अफ़लातून' कहकर बुलाते थे. सराभा खेल-कूद में भी आगे थे और शरारती होने के बावजूद उन्हें सभी प्यार करते थे.
बचपन से ही उनमें एक लीडर के गुण थे. 9वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करके सराभा अपने चाचा बख्शीश सिंह के पास कटक, ओडिशा चले गए. कटक के रैवनशॉ कॉलेजिएट से उन्होंने 1911 में मैट्रीकुलेशन पास किया. खास बात ये है कि सुभाषचंद्र बोस ने भी इसी कॉलेज से पढ़ाई की थी. बेनी माधव दास उस समय इस संस्था के हेडमास्टर थे, सराभा उनसे बेहद प्रभावित हुए.
एक लेख की मानें तो रैवनशॉ कॉलेजिएट में एक शिक्षक के विरुद्ध छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया था. और इस प्रदर्शन का नेतृत्व करतार सिंह सराभा ने ही किया था. गौरतलब है कि रैवनशॉ कॉलेजिएट में मिले दस्तावेज़ों में सुभाषचंद्र बोस का नाम है लेकिन सराभा का नाम गायब है.
अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस
News Click/Immigration Question Answer of Kartar Singh Sarabha
मैट्रीकुलेशन पास करने के बाद करतार सिंह सराभा को उनके परिजनों ने आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेज दिया. 1912 में अमेरिका की धरती पर सराभा ने कदम रखा. सैन फ़्रांसिस्को एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन के अधिकारी उनसे पूछताछ करने के लिए उन्हें अलग ले गए. अधिकारियों ने उनके अमेरिका आने का मकसद पूछा जिस पर सराभा ने कहा कि वो शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका पहुंचे हैं.
अधिकारियों ने उन्हें रुकने की आज्ञा तो दे दी लेकिन उन्हें अमेरिकी निवासियों की कई टिप्पणियां सुननी पड़ती. गोरे अमेरिकी उन्हें 'डैम हिन्दू' या 'ब्लैक कूली' कहकर प्रताड़ित करते. भारत और भारतीयों की ऐसी बेइज़्ज़ती ने उनके अन्तर्मन को ठेस पहुंचाया. अपने देशवासियों की अपने ही देश में होने वाली दुर्दशा की छवि दिन-रात उनके आंखों के सामने तैरती रहती.
अमेरिका में रहते हुए उन्होंने अमेरिका के लोगों को हर्ष और उल्लास से 4 जुलाई को अपनी आज़ादी का दिन मनाते देखा.
गदर पार्टी में सराभा
The Tribune/An Early Issue of The Gadar
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आए सराभा संस्कृत के विद्वान लाला हरदयाल, किसान सोहन सिंह भकना और एग्रीकलचर्ल साइंटिस्ट पांडुरंग सदाशिव से मिले. 15 जुलाई, 1913 को गदर पार्टी की नींव रखी गई और सराभा पार्टी के सबसे युवा संस्थापक बने. इस पार्टी का एक ही लक्ष्य था- ब्रितानिया सरकार को देश से खदेड़ना. सराभा तब तक अपनी पढ़ाई छोड़ चुके थे.
गदर पार्टी ने सैन फ़्रांसिस्को में एक प्रिंटिंग प्रेस खोला. 1 नवंबर, 1913 को उर्दू में 'द गदर' का पहला संस्करण प्रकाशित किया गया. दिसंबर तक द गदर पंजाबी में भी छपने लगी. सराभा खुद उर्दू लेखों को गुरुमुखी में ट्रांसलेट करते और हैंड प्रेस से छापते. सराभा पार्टी में अपने से उम्र में कही ज़्यादा उम्र के लोगों के साथ आज़ादी के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम करते, पार्टी के 'बाबा' सराभा को 'बाल जर्नैल' कहकर बुलाते.
सराभा भारत लौटे
जुलाई 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई और गदर पार्टी के सदस्यों ने भी वतन लौटने का निर्णय लिया. गदर पार्टी के सदस्य वतन लौटकर भारतीय सिपाहियों में विद्रोह की भावना जगाना चाहते थे. अक्टूबर 1914 को सराभा अपने वतन वापस लौट आए. वे 100-100 किलोमीटर साइकिल चलाकर सिख सिपाहियों के खेमे में पहुंचाते और निडर होकर अपनी बात रखते.
पार्टी के सदस्यों पर कसा शिकंजा
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फरवरी 1915 आते-आते अंग्रेज़ों ने गदर पार्टी के षड्यंत्र को भांप लिया. ब्रितानिया सरकार पार्टी के सदस्यों को गिरफ़्तार करने लगी. गदर पार्टी 21 फरवरी को फ़िरोज़पुर कैंट से मियां मीर को बंदी बनाने के बाद विद्रोह छेड़ने वाली थी. सराभा अंग्रेज़ों से बच निकले और रूस की तरफ़ निकल गए. कुछ कथाओं की मानें तो सराभा और उनके साथी अफ़गानिस्तान के पास पेशावर में थे कि वो 'सिंह नाम शेर दा जो चढ़े गज के, बनी शेर शेरन दे कि जाना भग के' गीत गाने लगे. सराभा पर इस गीत का ऐसा असर पड़ा की वो भागे नहीं और लौट आए. मार्च में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
फ़र्स्ट लाहौर कॉन्सपिरेसी केस
गदर पार्टी के सदस्यों और उनके समर्थकों की गिरफ़्तारी के बाद इंडिया डिफ़ेंस एक्ट 1915 के तहत मुकदमा चलाया गया. स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने फ़र्स्ट लाहौर कॉन्सपिरेसी केस के दोषियों की पेशी हुई. सराभा पर अंग्रेज़ों ने जो पहली FIR की थी उसमें लिखा था कि उनके पास दो किताबें बरामद हुई है. केस के दौरान करतार सिंह सराभा की उम्र सिर्फ़ 18.5 साल थी.
एक लेख के अनुसार करतार ने कोर्ट में कहा, 'आप मुझे मृत्युदंड देंगे? और क्या? हमें किसी से डर नहीं लगता. मेरे गुनाहों के लिए या तो मुझे मृत्युदंड दिया जाएगा या आजीवन कारावास. मैं मृत्यु चुनूंगा ताकि फिर से एक बार जन्म ले सकूं और हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए लड़ सकूं. जब तक देश को स्वतंत्रता नहीं मिली मैं बार-बार जन्म लूंगा और फांसी पर झूल जाऊंगा. और अगर मेरा जन्म स्त्री के रूप में होता है तो मैं ऐसे ही क्रांतिकारियों को जन्म दूंगा.'
करतार सिंह सराभा सिर्फ़ 19 साल के थे जब उन्होंने हमारी आज़ादी के लिए हसंते-हंसते अपनी कुर्बानी दे दी.
भगत सिंह के गुरु
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भगत सिंह की मां, माता विद्यावती ने बताया था कि भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु, अपना आदर्श मानते थे. जब भगत सिंह को गिरफ़्तार किया गया तब उनकी जेब से करतार सिंह सराभा की तस्वीर मिली थी. ये तस्वीर भगत सिंह हमेशा अपने साथ रखते थे. अपनी मां को तस्वीर दिखाकर कहते थे- मां, ये मेरे हीरो हैं, दोस्त हैं, साथी हैं.